पिछले दिनों दिल्ली में दैनिक भास्कर के पत्रकार तरुण सिसौदिया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। बताया गया कि कोरोना से पीड़ित इस पत्रकार ने अपनी नौकरी छिन जाने की आशंका और अपनी बीमारी से परेशान होकर एम्स की चौथी मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली।
दो साल पहले लगभग इन्हीं दिनों में इसी अखबार के समूह संपादक कल्पेश याग्निक ने भी इंदौर में अखबार के दफ्तर में ही ऊपर से कूद कर आत्महत्या कर ली थी। हालांकि उनके आत्महत्या करने के कारण काफी-कुछ जुदा थे।
इस समय जारी कोरोना महामारी के दौर में भी हो सकता है कि मीडिया संस्थानों के मालिकों की निष्ठुरता और पैसे की भूख के चलते आने वाले दिनों में और भी पत्रकारों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें हमें पढने-सुनने को मिले। हम सब कामना करें कि यह आशंका गलत साबित हो, मगर हालात इस समय बहुत विकट है।
कोरोना महामारी की आड में आर्थिक संकट का बहाना बनाकर विभिन्न मीडिया संस्थानों से बडी संख्या में पत्रकार और गैर पत्रकार कर्मचारियों को निकाले जाने का सिलसिला जारी है। जो लोग निकाले जाने से बच गए हैं, उनके वेतन में 15 से 50 प्रतिशत तक की कटौती कर दी गई है। फिर भी सबसे ज्यादा खराब हालत उन लोगों की है, जिनकी नौकरी चली गई है। उन्हें और उन पर आश्रित उनके परिजनों को तरह-तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ रहा है।
दो साल पहले कल्पेश की मौत पर मैंने लिखा था कि कारपोरेट संस्कृति में डूबे हुए यानी बाजार के गुलाम बन चुके मीडिया घरानों में जन सरोकारों और मानवीय संवेदनाओं की कोई जगह नहीं होती। वहां होती है तो सिर्फ हर कीमत पर अपने विस्तार और बेतहाशा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति। इसके लिए मीडिया मालिक किसी भी हद तक गिरने के लिए तत्पर रहते हैं और संपादक से लेकर अदने संवाददाता और अन्य तमाम मुलाजिमों तक से भी इसी तरह तत्पर रहने की अपेक्षा रखते हैं।
कई लोग इस अपेक्षा को पूरा करने से इंकार देते हैं, जिसकी वजह से बाहर कर दिए जाते हैं, लेकिन इस कसौटी पर खरे उतरने वाले मुलाजिमों के प्रति भी प्रबंधन कोई मुरव्वत नहीं पालता और एक वक्त ऐसा आता है, जब वह उनको बेरहमी से किनारे कर देता है। ऐसे में वे या तो अवसाद, रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं या फिर एक झटके में अपनी जिंदगी से नाता तोड़ लेते हैं।